रज़ा फाउंडेशन, दिल्ली की एक लघु परियोजना के अन्तर्गत कवि-सम्पादक मित्र पीयूष दईया हिन्दी और अंग्रेजी भाषा की अप्राप्त रचना-सामग्री एकत्र कर रहे हैं—-विभिन्न विद्यानुशासनों और विधाओं की रचनाएँ। इसी सिलसिले में उन्हें अज्ञेय जी के कुछ आलेख मिले हैं। उन्हीं में से एक अप्राप्त निबन्ध जो (आजकल’ में प्रकाशित हुआ था) “पानी के स्वर” यहाँ प्रस्तुत है- मॉडरेटर
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कवि हूँ या नहीं हूँ तो होने की आकाँक्षा लिए रहा हूँ . इसलिए सन्नाटे के तरह तरह के स्वर सुनने का अभ्यासी हूँ. कवि को श्रशता कहते हैं.वह क्या ‘न-कुछ’ में से ‘कुछ’ की (नासदासित नो सदासीत) ऐसी सृष्टि करता है जिसे वास्तव में अनाड़ी कहा जा सकता है? यह मान लेना कठिन है. वैसी एक ही सृष्टि हो सकती है और उसका एक ही श्रशता हो सकता है – और वो श्रशता भी अनाद्यांत होगा. कवि जो काव्यं करता है वह न – कुछ में से कुछ पैदा कर देने का जादू नहीं होता है, वह अव्यक्त में से व्यक्त को रूपायित करने का जादू होता है. अव्यक्त में से व्यक्त का आविष्कार, उद्धार, रूपायन – जहाँ तक कवि का सवाल है सृष्टि यही है.
जल परम्परा से अव्यक्त का प्रतीक है. सभी कुछ उसी में से प्रकट होता है. सबसे पहले अव्यक्त था जिसमें रूप प्रकट हुआ, और सबसे पहले जल था जिसमें तरंग उठी और एक सत्ता भहसमान – एक ही बात को कहने के ये दो तरीक़े हैं. हम लोगों ने ‘होना’ क्रिया-रूप के अधीन अस्ती और भवति डोनो को माँ लिया है – माँ क्या लिया है, इतना ही है की साधारण बोल – चाल में डोनो में भेद करने से क़तरा जाते हीं क्यूँकि उधर बढ़ना तत्काल तत्व मीमांसा के जाल में उलझ जाना है. लेकिन कवि का क्षेत्र एक तरह से सम्भूति तक ही है. काव्यं अव्यक्त को व्यक्त की परिधि में ले आना है : उससे पहले उसकी सत्ता कैसी या क्या थी,
इस प्रश्न का उत्तर भी कवि दे ही यह बिलकुल आवश्यक नहीं है. इसका उत्तर वह जानता भी नहीं है, ऐसा भी कोई दावा उसका नहीं है. श्री कृष्ण ने भी जब कहा ‘संभवामी युगे- युगे’ तब उन्होंने यों रूप लेने अथवा अवतरित होने की बात ही कही : अवतरित होने से पहले जो भी सनातन सत्ता है उसके बारे में उन्होंने कुछ नहीं कहा – या उतना ही कहा जितना उस वाक्य में निहित ही है. ‘मैं अवतरित होता हूँ’ यह कहने में यह तो निहित है ही कि अवतरण से पहले मैं हूँ. यह पूछने का कोई अर्थ नहीं है की अवतरित होने से पहले वह कहाँ हैं, क्यूँकि जहाँ भी वह पहचान में आते हैं वह पहचान में आना ही तो अवतरित होना है – नहीं तो अनपहचानी भी उनकी सत्ता तो है ही. क्या यह प्रश्न कुछ अर्थ रखता है की अगर समुन्दर – मंथन में ही अमृत कि प्राप्ति हुई तो क्या उससे पहले सुर- गण अमर नहीं थे? अव्यक्त से व्यक्त की प्राप्ति की बात ही उस कोटि की है जहाँ पहले और पीछे, हेतु और हेतुमत, देश और काल की बातें बहार छूट जाती है. ये सब नियम तो व्यक्त को बाँधने, समझने, समझने के उपाय हैं. जो इनसे परे है वही तो अव्यक्त है.
अव्यक्त. आदि अंत रहित, रूपाकार, रूपाकार-विहीन, अजस्त्र अछोर जल. वैदिक द्रष्टा का रूपक है की प्रजापति की वीणा के स्वर से उस जल में लहर उठी, उससे स्वर उपजा; और वहीं से सृष्टि का आरम्भ होता है. इसीलिए पानी का स्वर पहला स्वर है और सृष्टि का रहस्य उसमें छिपा रहता है. इसलिए सभी साधक पानी का स्वर सुनने का प्रयत्न करते हैं. और जैसे – जैसे साधना आगे बढ़ती है वे जल के कल – कल से आगे बढ़ते हुए शांत स्तब्ध नीरव जल का स्वर सुनने में दत्तचित्त होते हैं – सन्नाटे का स्वर सुन पाने का अभ्यास करते हैं. जेन साधना में तो पानी के स्वरों का विशेष महत्व है. जेन कवि तो पुराने ताल में मेंढक के छलाँग लगाने की बात कह कर एक तरह से चुप ही हो गया है. उसने अपने हाईकू छंद की अंतिम पंक्ति में जो पाँच वर्ण अथवा तीन शब्द रखे उनका वाच्य अर्थ केवल ‘पानी का स्वर’ ही होता है. लेकिन पढ़ने वालों और उससे भी अधिक अनुवाद करने वालों के लिए वह एक गुत्थी छोड़ गया. पानी का स्वर- वह भी पानी का स्वर- यानी क्या? पानी का क्या एक स्वर है? छोटे कवि ने बाशो के प्रसिद्ध हाईकू का अनुवाद करते हुए पहली बात तो पानी के स्वर को एक मूर्त बिम्ब का आहार बनाने के लिए उसे मेंढक के जाल में कूदने के स्वर तक ही सीमित कर लिया:
ताल पूरना
कूदा दादुर
गुडुप /
निश्चय ही यह अंतिम शब्द ‘गूडुप’ हमारे सामने एक श्रुतगम्य, ध्वनि- बिम्ब प्रस्तूत करता है और उसके सहारे पूराने ताल में (बूढ़े?) दादुर की कूद भी मूर्त हो आती है. लेकिन बाशो का छोटा सा छंद क्या केवल उतनी ही बात कहना चाहता है? क्या केवल एक गोचर अनुभूति का ही संप्रेषण करना चाहता है? क्या मूल छंद का ‘पानी का स्वर’ उन आदिम जलों तक ही हमें नहीं ले जाता जो प्रजापति कि वीणा के आद्या स्वर से काँपते हैं? तब क्या वह पूरना ताल इस सारे विश्व- ब्रह्मांड के साथ एक नहीं हो जाता जो न जाने कब से चला आ रहा है – पूरना है और दिन – ब – दिन अधिक पुराना होता जा रहा है – जिसके सारे व्यक्त रूपाकार प्राकत्न अव्यक्त को उसी तरह घेरे और अपने बीचों – बीच समेटे हुए हैं जिस प्रकार पूराने ताल के घाट और सीढ़ियाँ एक स्तब्ध जल – राशि को? उसमें मेंढक छलाँग लगाता है और अव्यक्त का सन्नाटा बज उठता है: प्रकट विश्व- ब्रह्मांड के हृतकूप में बसे हुए अविचल निश्चल अव्यक्त के साथ उसके सारे सम्बंध न केवल एक फैलती हुई गूँज की तरह हमारे अंत: स्थल को भी लहरा जाते हैं वरंच हमारी स्मृति के भीतर कहीं यह बोध भी जगा जाते हैं की वहाँ भी तो एक ओट एक असंख्य पूराने ताल हैं, असंख्य जलराशियाँ हैं जिन्हें हमारे घटमाँ के असंख्य मेंढक अपनी कूद से विचलित कर देते हैं – (अपनी असंख्य छलाँगों से विचलित की जाते हैं !) – और इस प्रकार हमारे भीतर अंतहीन व्यक्त अर्थात भव और अंतहीं अव्यक्त परम – व्योम के अंतहीन सम्बन्धों की गूँजें, अनगूँजें जगा जाते हैं… वही तो पानी का स्वर है- क्या उसे एक गूडुप में सीमित कर देना एक किरण की चमक के लिए स्वयं किरणों के श्रोत सूर्य को ओट कर देना नहीं है? छोटे कवि ने अनुवाद करते समय हार मान ही ली और हाईकू की अंतिम पंक्ति से गूडुप हटा कर सीधे – सीधे लिख दिया ‘पानी का स्वर’. आख़िर बाशो ने भी तो यही किया था – सीधे सीधे लिख दिया था ‘मिज़ू नो ओटो’ – पानी का स्वर! जापानी भाषा में मिज़ू पानी को कहते हैं. विशेष संदर्भों में इस शब्द के साथ सम्मान – सूचक पद ओ लगाया जाता था – ओ मिज़ू कहने का आशय कुछ वैसा ही होता था जैसे हमारे गंगा के अथवा तीर्थों के पानी को ‘जल’ कहने से होता है. नलके से ‘पानी’ आता है गंगा से ‘जल’ लाते हैं. उसी प्रकार विशेष अर्थों में पुशतक को ग्रंथ अथवा और भी अधिक श्रद्धा देने के लिए ‘ग्रंथ साहब’ कहते हैं, मंदिर को ‘मंदिर जी’ कहते हैं इत्यादि. जेन साधक भी मिज़ू को ओ मिज़ू कहता है और इसी प्रकार चाय को भी ओ चा कहता है. यों कहने से चाय या पानी में तो कोई परिवर्तन नहीं आता पर उसके साथ हमारे सम्बंध के निरूपण में पवित्रता का श्रद्धा भाव जुड़ जाता है. यों तो जब सभी कुछ में ईश्वर (अथवा देव्तव) बसता है तो सभी के साथ हमारा सम्बंध वैसा ही होना चाहिए. सभी कुछ पवित्र है और उसका संस्पर्श हमें पवित्रता का संस्पर्श देता है जिसे श्रद्धा के साथ ग्रहण करना चाहिए. यही भाव तो भागवत भाव है. इसे हम सदैव शब्दबद्ध न भी करें, इस भाव में जिन ही सच्चा जिन है.
पानी के स्वर. असंख्य स्वर. विश्व के साथ हमारे सम्बन्धों में छिपे पवित्रता के असंख्य संकेत. श्रद्धा के असंख्य आह्वाहन. हम कहते हैं संसार अथवा संसृति बहना है और संसृति बह कर मिलना है, बहावों का संगम है. ‘बहन’ में फिर क्या वही पानी का स्वर नहीं है? व्यक्तों के बीच आवयक्तों की गूँज नहीं है?
जल परम्परा से अव्यक्त का प्रतीक है. सभी कुछ उसी में से प्रकट होता है. सबसे पहले अव्यक्त था जिसमें रूप प्रकट हुआ,और सबसे पहले जल था जिसमें तरंग उठी और एक सत्ता भासमान हुई. एक ही बात को कहने के ये दो तरीक़े हैं.
वही कवि सुनता है मेरे एक कवि बंधु ने कहा है कि ‘मेरे मन में पानी की अनेक स्मृतियाँ हैं’ : शायद वह उन आदिम जलों की यथार्थता के कुछ अधिक निकट से बात कर रहा है क्यूँकि वह ‘पानी की स्मृतियों’ की बात कर रहा है. मैं तो इससे 2-4 सीधी पहले ही रुक कर केवल इतना ही कह सकता हूँ कि मुझ में पानी के स्वर की अनेक स्मृतियाँ हैं. मैंने पतली ग्रीवा वाली सराही के लुढ़क जाने से बहते पानी का स्वर भी सुन है और अपने ही बनाए छोटे से ताल में गिरते हुए पहाड़ी झरने का स्वर भी; पर्वती प्रदेश में छतों पे जमी हुई बर्फ़ के पिघल कर बूँद- बूँद रिसने का स्वर भी और किनारे लगी नाव पर नदी की लहरों की थपक भी. मैंने कुएँ के जल में डूबती गागर के पानी से भरने का स्वर भी सुन है, तूफ़ानी बादलों के फट पड़ने से सागर पर पड़ती हुई पानी की मार भी. और ये केवल दो चार उदाहरण हैं: पानी के स्वर की बात सोचने लगता हूँ तो मानो पानी के बाँध टूट जाते हैं – कोई सीमा नहीं रहती. ओस की अथवा आँसू की ढरकन का स्वर भी तो पानी का ही स्वर है और नदी के बाँध टूटने का स्वर भी तो पानी का स्वर है. निलकंठ छोटी मछली को पकड़ने के लिए धन-खेत में फैले पानी पर गिरता है और उड़ जाता है, वहाँ भी पानी का एक स्वर है. और पहाड़ी घराट के नीचे मानो मुहँ से झाग छोड़ते हुए क्रुद्ध पानी का स्वर भी पानी का ही स्वर है… और कभी कभी सन्नाटे में अपने ही रगों में दौड़ते हुए लहू की जो सनसनाहट कानों में सुनाई दे जाती ही वह भी क्या पानी का ही स्वर नहीं है?
पानी का स्वर….पानी के स्वर. पानी के स्वर सुनते- सुनते ना जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाता हूँ. कह सकता हूँ कि पानी के स्वर सुनते – सुनते ही कवि बन जाता हूँ. शायद पानी का स्वर सन्न ही कवयन है. लेयोनारदो द बिंचि ने घंटी के नाद की बात कही थी – उसे भी हज़ार तरह सुना जा सकता है या कह सकते है कि उसके हज़ार शब्द हैं. शायद पश्चिमी सभ्यता में स्थूल का आग्रह बहुत अधिक होता है इसलिए लियोनर्दो ने – ध्वनि की बात कही. लेकिन लहर की बार अँततोगतवा द्रव के कम्पन की बात है ‘पानी के स्वर की बात है – प्रजापति की वीणा से अव्यक्त के सागर में उठने वाली लहर की बात है. काँपना ही जीना है, अस्तित्व पाना है. अनढ़रे आँसू का भी एक स्वर है -थरथराते पानी का स्वर.
कहते – कहते या सोचते -सोचते मैं चुप हो जाता हूँ. एक सिहरान उठती है. एक सन्नाटा मुझे सुनाई पड़ने लगता है. उस सन्नाटे के असंख्य स्वर हैं. सन्नाटे के तरह – तरह के स्वर सुनने का अभ्यासी हूँ. कवि हूँ – या नहीं भी हूँ तो…….
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