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मेधा के उत्पीड़न से सबक

अफलातून संगठन सचिव, समाजवादी जन परिषद् एक मेधावी और संवेदनशील युवा राजनीतिक की मौत ने भारतीय समाज को हिला दिया है. इस युवा में जोखिम उठाने का साहस था और अपने से ऊपर की पीढ़ी के उसूलों को आंख मूंद कर न मानने की फितरत भी. वह एक राजनीतिक कार्यकर्ता था, उसका संघर्ष राजनीतिक था. […]

अफलातून
संगठन सचिव,
समाजवादी जन परिषद्
एक मेधावी और संवेदनशील युवा राजनीतिक की मौत ने भारतीय समाज को हिला दिया है. इस युवा में जोखिम उठाने का साहस था और अपने से ऊपर की पीढ़ी के उसूलों को आंख मूंद कर न मानने की फितरत भी. वह एक राजनीतिक कार्यकर्ता था, उसका संघर्ष राजनीतिक था.
वह आतंक के आरोप में दी गयी फांसी के विरुद्ध था, तो साथ-साथ आतंक फैलाने के लिए सीमा पार से आये घुसपैठियों से मुकाबला करते शहीद हुए जवानों की शहादत के प्रति श्रद्धावनत होकर उसने कहा था, ‘अांबेडकरवादी होने के नाते मैं जिंदगी का पक्षधर हूं.
इसलिए उन जवानों की शहादत को नमन करता हूं.’ उसकी मेधा से टक्कर लेने की औकात न तो विरोधी विचारधारा से जुड़े उसकी शिक्षण संस्था के छात्रों में थी और न ही उस शैक्षणिक संस्था के बौने कर्णधारों में. इसलिए सत्ता के शीर्ष पर बैठे आकाओं की मदद से एक चक्रव्यूह रचा गया. सत्ताधारी ताकतें रोहित वेमुला द्वारा फांसी की सजा के विरोध की चर्चा तो करती हैं, लेकिन रोहित के समूह (अांबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन) द्वारा मनुस्मृति दहन तथा गत नौ वर्षों में 9 दलित छात्रों द्वारा शैक्षणिक उत्पीड़न के कारण की गयी आत्महत्याओं के विरोध की चर्चा करने का साहस नहीं जुटा पातीं.
लखनऊ में अांबेडकर विवि के दीक्षांत समारोह में छात्रों के प्रत्यक्ष विरोध के बाद प्रधानमंत्री जिस भाषण में ‘मां भारती के लाल की मृत्यु’ के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करते हैं, उसी में यह कहने से हिचकिचाते नहीं हैं कि बाबासाहब अपने जीवन में आनेवाले कष्ट चुपचाप सहन कर जाते थे, किसी से शिकवा तक नहीं करते थे.
बाबासाहब के बारे में प्रधानमंत्री का यह दावा निराधार है. बाबासाहब द्वारा महाड सत्याग्रह (अस्पृश्यों के लिए वर्जित तालाब से घोषणा करके अपने समर्थकों के साथ पानी पीना) तथा मनुस्मृति दहन चुपचाप सहन करते जाने के विलोम थे.
पुणे करार के दौरान हुई बातचीत में गांधीजी ने उनकी वकालत के बारे में पूछा था. बाबासाहब ने उन्हें बताया था कि अपने राजनीतिक-सांगठनिक काम के कारण वे वकालत में कम समय दे पा रहे हैं. उसी मौके पर शैशव से तब तक उनके साथ हुए सामाजिक भेदभाव और उत्पीड़न की उनके द्वारा बतायी गयी कथा गांधी के विचार पत्रों- हरिजनबंधु (गुजराती), हरिजनसेवक (हिंदी) तथा हरिजन (अंगरेजी)- में छपे थे.
भारतीय समाज और राजनीति में सकारात्मक बदलाव आ रहे हैं. पिछड़े और दलित खुली स्पर्धा में अनारक्षित सीटों पर दाखिला पाते हैं, वजीफा हासिल करते हैं और लोक सेवा आयोग की अनारक्षित सीटों पर चुने जाते हैं.
यह समाज की सकारात्मक दिशा में गतिशीलता का मानदंड बनता है. ऐसे युवाओं की तादाद उत्तरोत्तर बढ़ रही है और बढ़ती रहेगी. गैर आरक्षित खुली सीटों पर चुने जानेवाले ऐसे अभ्यर्थियों के कारण आरक्षित वर्गों के उतने अन्य अभ्यर्थियों को आरक्षण के अंतर्गत अवसर मिल जाता है.
यहां यह स्पष्ट रहे कि यदि अनारक्षित खुली स्पर्धा की सीटों पर आरक्षित वर्गों के अभ्यर्थियों को जाने से रोका जायेगा, तब उसका मतलब गैर-आरक्षित तबकों के लिए 50 फीसदी आरक्षण देना हो जायेगा. सामाजिक यथास्थिति की ताकतें इस परिवर्तन से खार खाती हैं. इस प्रकार पढ़ाई-लिखाई में कमजोर ही नहीं, मेधावी छात्र-छात्राओं को भी विद्वेष का सामना करना पड़ता है. यानी उत्पीड़न का आधार छात्र का पढ़ाई में कमजोर या मजबूत होना नहीं, अपितु उसकी जाति होती है.
शैक्षणिक संस्थाएं व्यापक समाज का हिस्सा भी हैं और इनकी अपनी एक दुनिया भी है. हर जमाने में सत्ता संतुलन बनाये रखने के लिए जिन लोगों की जरूरत होती है, उनका निर्माण इन संस्थाओं में किया जाता है.
रोहित को यथास्थितिवाद का पुर्जा बनाना शिक्षा व्यवस्था के बस की बात न थी. व्यापक समाज और विश्वविद्यालय परिसर को देखने की उसकी दृष्टि सृजनात्मक थी, दकियानूसी नहीं. हैदराबाद शहर के बाहर बसाये गये इस परिसर के पेड़-पौधे, जीव-जंतुओं से लेकर अंतरिक्ष तक उसकी नजर थी. अपनी राजनीतिक पढ़ाई के अलावा कुदरत से मानव समाज की बढ़ रही दूरी को वह शिद्दत से महसूस करता था.
उसके फेसबुक चित्रों का एक एलबम हैदराबाद विश्वविद्यालय की वानस्पतिक और जैविक संपदा के सूक्ष्म निरीक्षण से खींचे गये फोटोग्राफ्स को समर्पित है.
हमारे उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठानों में रोहित जैसे होनहार तरुण की प्रतिभा पुष्पित-पल्लवित हो सके, यह अत्यंत दुरूह है. इस दुर्गम पथ पर चलते वक्त उसे कदम-कदम पर लड़ना पड़ा होगा. राजनीति और शिक्षा के संचालकों को उसने चुनौती दी होगी. किसी देश का लोकतंत्र उसकी संस्थाओं के अलोकतांत्रीकरण से कमजोर होता है. उन संस्थाओं में लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी है कि प्रशासनिक तंत्र के हर स्तर पर छात्र-अध्यापक-कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व हो. उच्च शिक्षण संस्थाओं की स्वायत्तता की पोल खुलनी अब शेष नहीं है.
दिल्ली विवि में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री की शैक्षणिक ‘उपलब्धियों’ की सूचनाओं को देने के जिम्मेवार बाबुओं के खिलाफ कार्रवाई के वक्त ही विश्वविद्यालयी स्वायत्तता की हकीकत सामने आयी थी. आइआइटी से लेकर इंडियन स्टैटिस्टिकलइंस्टीट्यूट जैसे देश के तमाम शिक्षण संस्थानों में दिल्ली में बैठे शैक्षणिक तंत्र के नौकरशाहों द्वारा बेहयाई से दखलंदाजियां की गयी हैं. उच्च शिक्षा केंद्रों में यौन उत्पीड़न की रोकथाम के लिए सुप्रीम कोर्ट के विशाखा फैसले की सिफारिशों की मूल भावना के अनुरूप समितियां बनी हैं. जातिगत विद्वेष की रोकथाम के लिए भी इस प्रकार की समितियां गठित होनी चाहिए. फिलहाल विश्वविद्यालयों में अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ बने हुए हैं, परंतु वे नख-दंत विहीन हैं.
लाजमी तौर पर इन समितियों में पिछड़े और दलित समूहों की नुमाइंदगी भी होनी चाहिए. यह गौरतलब है कि गैर-शिक्षक कर्मचारी चयन, शिक्षक व गैर-शिक्षक आवास आवंटन समिति में अनुसूचित जाति/जनजाति का प्रतिनिधित्व होता है. इनमें पिछड़ी जातियों तथा महिलाओं का प्रतिनिधित्व भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए.
केंद्रीय विश्वविद्यालयों के विजिटर पदेन राष्ट्रपति होते हैं तथा इन्हें विश्वविद्यालयों की प्रशासनिक-शैक्षणिक जांच के अधिकार का प्रावधान हर केंद्रीय विश्वविद्यालय के कानून में होता है.
इस प्रावधान के तहत सिर्फ काशी विश्वविद्यालय में दो बार विजिटोरियल जांच हुई है- न्यायमूर्ति मुदालियर की अध्यक्षता में तथा न्यायमूर्ति गजेंद्र गडकर की अध्यक्षता में. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की अध्यक्ष रही माधुरी शाह की अध्यक्षता में सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों की जांच समिति गठित हुई थी. रोहित की मृत्यु के पश्चात एक व्यापक संदर्भ की जांच आवश्यक है.
निर्भया कांड के बाद बने न्यायमूर्ति वर्मा की समयबद्ध कार्यवाही तथा बुनियादी सुधार के सुझावों से हमें सीख लेनी चाहिए तथा उच्च शिक्षा की बाबत उस प्रकार की जांच की जानी चाहिए. केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा घोषित जांच इस व्यापक उद्देश्य की दृष्टि से नाकाफी प्रतीत होती है.

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