'विद्रोही' जैसी जिंदगी सब जीना चाहते हैं...बस हिम्मत नहीं होती
हम में से ज्यादातर कॉलेज के दिन पूरे होते ही एक दूसरी दुनिया में कदम रख लेते हैं. फिर एक आपाधापी शुरू हो जाती है. रमाशंकर विद्रोही ने इस मामले में हमें ठेंगा दिखा दिया. दिखा दिया कि फक्कड़ बन के जीना भी एक जीना होता है...
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इतिहास में पहली स्त्री हत्या
उसके बेटे ने अपने बाप के कहने पर की
जमदाग्नि ने कहा कि ओ परशुराम!
मैं तुमसे कहता हूं कि अपनी मां का वध कर दो
और परशुराम ने कर दिया
इस तरह से पुत्र पिता का हुआ और पितृसत्ता आई...
इसे पढ़ते वक्त क्या नहीं लगता कि कोई आपको झकझोर कर चला गया है. इन पंक्तियों को समझने के लिए जरूरी नहीं कि आप भाषा के बड़े विद्वान हों. न ही इसकी रचना किसी ऐसे साहित्यकार ने की जिसका ड्राइंग रूम पुरस्कारों से अटा पड़ा हो. वह फक्कड़ थे. बातों-बातों में कविताएं गढ़ लेना, जहां दिल किया वहीं सो जाना, जब मन हुआ खा लेना...जिसने जो दिया..उसमें अपनी जरूरतों को पूरा कर लेना..यही उनके जीने का अंदाज था. जी हां!, बात रमाशंकर यादव 'विद्रोही' की ही हो रही है. वो अब नहीं रहे. जेएनयू में पिछले 30 वर्षों से भी ज्यादा समय से गूंज रहा 'विद्रोही' कविताओं का वह स्वर मंगलवार को थम गया.
विद्रोही जैसी जिंदगी तो हम भी जीना चाहते हैं...
हम में से ज्यादातर कॉलेज के दिन पूरे होते ही एक दूसरी दुनिया में कदम रख लेते हैं. फिर एक आपाधापी शुरू हो जाती है. झुंझलाकर कई बार खुद से कह भी देते हैं... घड़ी की सुइयों के बीच बंधी ये जिंदगी भी भला कोई जिंदगी है. विद्रोह करने का ख्याल भी आता होगा, बस हिम्मत नहीं होती. रमाशंकर विद्रोही ने इस मामले में हमें ठेंगा दिखा दिया. जेएनयू के ढाबों पर उनकी कविताओं की मंडली रोज जमती रही. छात्रों के किसी भी विरोध मार्च में उसी जोश से हिस्सा लेने चले जाते जैसे वह भी 24-25 साल के ही और समस्या उनकी अपनी हो.
साधु-संतो की तरह हिमालय नहीं गए. यहीं हमारे बीच रहे लेकिन फिर भी सभी बंधनों से मुक्त. 1980 में उनका रिश्ता जेएनयू से जुड़ा. एमए करने आए थे. लेकिन 1983 में छात्र आंदोलन के समय उन्हें कॉलेज से बाहर कर दिया गया. लेकिन शुरू से फक्कड़ और विद्रोही मिजाज के रमाशंकर कहां मानने वाले थे. ठान लिया जेएनयू से अलग नहीं होंगे. बस डेरा जमा लिया. फिर क्या पारिवारिक बंधन और क्या दुनियादारी. सब उनके सामने नतमस्तक हो गए. शादी हुई लेकिन वह भी उन्हें नहीं बांध सका.
कॉलेज का कैंपस उनका घर बन गया और उसी कैंपस का एक कोना उनका बेडरूम. चेहरे पर बढ़ती उम्र का असर भले ही दिखता था लेकिन दिल और मन किसी बच्चे की तरह. कभी कोई कविता लिखी नहीं...बस सुनाते चले गए. फिर खुद ही बताते भी हैं कि उनके लिए कविता के मायने क्या है...
'कविता क्या है..खेती है
कवि के बेटा-बेटी है
बाप का सूद है, मां की रोटी है.'
अब भला कविता की ऐसी परिभाषा कभी सुनी है..आपने!! उनकी कविताओं की खासियत ही यही थी कि वे जमीनी हकीकत को बड़े साहस के साथ बेपर्दा कर देते थे. नास्तिक थे तो उसी तेवर से जमाने वालों पर तंज भी कसते थे. कुछ लोगों ने पागल कहा तो उसका जवाब भी दिया...अपने कविता के उसी विद्रोही अंदाज में
'मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं कि पगले!
आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर जमीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो जमीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.'
विद्रोही कभी अकादमियों के गलियारों में नहीं गए. पुरस्कार और प्रतियोगिताओं की होड़ में नहीं पड़े. लोगों से सीधा संवाद किया. मोहनजोदड़ो से लेकर मेसोपोटामिया और फिर भारत-पाकिस्तान बंटवारे पर उनके पास कहने को कितना कुछ था और कहा भी. मोहनजोदड़ो की सीढ़ियों पर जली हुई महिला के मिले अवशेषों पर विद्रोही कमेंट करते हैं...
'मैं सोचता हूं और बार-बार सोचता हूं
कि आखिर क्या बात है कि
प्राचीन सभ्यताओं के मुहाने पर
एक औरत की जली हुई लाश मिलती है'.
फिर ये भी कहते हैं....
'इतिहास में वो पहली औरत कौन थी, जिसे सबसे पहले जलाया गया ?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो- मेरी मां रही होगी
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा ?
मैं नहीं जानतालेकिन जो भी होगी- मेरी बेटी होगी
और मैं यह होने नहीं दूंगा.'
विद्रोही की एक नई दुनिया की कल्पना भी कितनी सरल है. वह बस इतना ही कहते थे...
एक दुनिया नई हमको गढ़ लेने दो...जहां आदमी-आदमी की तरह रह सके..कह सके, सुन सके, सह सके.
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